Saturday 10 August 2013

ऐ परी .....


ऐ परी !
तेरी चाह में मैं 
खुद से पिघलता हूँ रोज 
पर मुलाकात नही होती 
सामना रोज होता है 
पर बात नहीं होती 
बगिया की एक पंखुड़ी हो तुम 
तीखी सीधी सपाट
संवेदनाओं से ओतप्रोत 
जिंदगी मेरी यूँ जैसे अँधेरी रात
अब न तुम, न वो रात 
तुम हंसकर मुझ पर 
बिखेरती रही चांदनी 
जिसमे मैं डूबता रहा 
उबरता रहा भीगता रहा 
उलझ कर
ख्वाब के धरातल पर 
रेत का घरोंदा बनाकर 
नाम लव लिख दिया मुस्कुराकर 
यूँ लगा जैसे लव मेरे करीब है 
मेरे आँख पे पटी बंधी है,
तू है, दूर है फिर भी 
तू मेरे पीठ पीछे खड़ी है 
पीठ पे हाथ 
तेरे प्यार की मुहर है 
सच 
तू माने न माने 
लव ही मेरी नसीब है
फिर रोज की तरह मैं 
ऐ परी !
तेरी चाह में मैं 
खुद से पिघलता हूँ रोज .....


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