आजा नजरों में इस तरह कोई
खबर न हो|
मुझे इक रात संवार दे फिर
सहर न हो|
सहमी नजरों में ख्वाब कोई
जगा दे आकर,
खुद मेरी आरजू कि कोई टहर न
हो|
बस नजर अपनी आईने की ओर
मोडो तुम,
दिल भले तार तार कर दो पर
पहर न हो|
जिस तरह सूखे हुए फूल
किताबों में मिले,
किसी की जिंदगी में इस तरह
कहर न हो|
डूबना आँखों में तेरी बहुत
अच्छा लगा,
हम नहाते रहे भले कोई लहर न
हो|
और वो तुम ही क्या जिसमें न
हम दिखाई दें,
साथ में उम्मीद पली है भले
जहर न हो|
रचना-राजीव मतवाला, ‘गज़ल
वाटिका’ से संकलित