Friday, 9 August 2013

आम छू आम छू…..

आम छू आम छू काला बदाम छू
सारी समस्या का कर दे तमाम छू
आम छू आम छू…..

जीवन की नैया का कौन है खेवैय्या
जीवन में बहे कैसे ठंडी पुरवैया
मंजिल की चाहत में उपर को बढ़ना है
पगडंडी छोड़ तुझे राजपथ पे बढ़ना है
कैसी भी हालत हो हिमत न हार तू
आम छू आम छू…..

जिंदगी तो चलने का नाम हुआ करती है
रुकना तो मौत की पहिचान हुआ करती है
असफलता सीढ़ी है पहली सफ़लता की
रफ्तार धीमी न बात है विफ़लता की
सत्येपथ की आँखों पर पट्टी न बांध तू
आम छू आम छू…..

थोरी सी आग भी गर्मी दे सकती है
इच्छा प्रबल ही तो मंजिल मिल सकती है
चिंता की धरा को प्रबल बनाता जा
दुःख दर्द मंजर को हवा में उध्हता जा
दुखियों के पांव लगा कांटा निकाल तू
आम छू आम छू…..

रचना:-राजीव मतवाला
प्रकाशित पुस्तक:-स्वप्न के गाँव से



बोलो तुमको गैर लिखूं या……..

जीवन के कोरे कागज पर कैसा गीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या मन का मीत लिखूं
अभी तलक तेरी नज़रों का नाज़ वही अंदाज़ वही
कौन समझ पाया है तेरे ख्वाबों का परवाज़ वही
कितने भगत पुजारी छोडे अपनी कंठी माला को
बहुत खोलना चाहा फिर भी ओठों पर है राज वही
दिल के टूटे हुए तार पर क्या संगीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या……..



अश्कों से जो लिखी गई वह कितनी अजब कहानी है
पीड़ा जलन घुटन से लिपटी तुने दिया निशानी है
खुद को भुला चूका हूँ अब तक तेरी सुधियों के पीछे
जितना तुझे जानना चाहा उतनी ही अनजानी है
होती हो अनरीत उसे मै कैसे रीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या……..

सूने आँगन को कैसे आबाद चमन बत्लायेगे
नश्वर है संसार उसे शाश्वत कैसे लिख पायेगे
जहाँ प्यार मनुहार नहीं है भावों की रसधार नहीं
सूखी हुई नदी में आखिर कैसे नाव चलाएंगे
भला दहकते अंगारों को कैसे शीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या……..

ज़हर भरे प्याले को कैसे आखिर मैं हाला लिख दूं
जीवन में विष घोल रही जो कैसे मधुशाला लिख दूं
सुंदर लेकिन गंध रहित है ये टेसू का फूल
सूखे भावों के तराग को कैसे रस प्याला लिख दूं
हारा जो हर मोड़ पर उसे कैसे जीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या……..

सदा सजग प्रहरी को आखिर क्यों सोने वाला लिख दूं
तुम्ही बताओ राज हंश को क्या कौवा काला लिख दूं
मानसरोअर की तुलना क्या छुद्र नदी कर सकती है
पीठ दिखाने वाले को कैसे हिम्मत वाला लिख दूं
स्वर लय छंद बध रचना किस तरह अगीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या

दंभ द्वेष में बंधे हुऐ को कैसे मतवाला लिख दूँ
भावों से कंजूस हिरदय को कैसे दिलवाला लिख दूँ
तोल तोल कर शब्द बेचते धुधला है समाज का दर्पण
ऐसे निपट स्वार्थी को कैसे यार निराला लिख दूं
पत्थर दिल को मतवाला कैसे नवनीत लिखूं
बोलो तुमको गैर लिखूं या……..

रचना:-राजीव मतवाला
प्रकाशित पुस्तक:-स्वप्न के गाँव से


हाय क्या हो रहा…..

हाय क्या हो रहा स्वप्न के गाँव में
हम सफ़र कर रहे कागजी नाव में
हाय क्या हो रहा…..



रात ढलने लगी, हर बशर सो गया
आँख जलने लगी शोर कम हो गया
धुंध की जद में परछा इयाँ खो गई
सिस्कीया पी के सर्गोसियाँ सो गई
अब चलें कैसे छाले पड़े पांव में
हाय क्या हो रहा…..

 

टूट लहरों की अंगडा इयाँ खो गई
यू मधुर स्वर की शहनाइयाँ सो गई
ओठ पर ओठ रखकर कहीं खो गए
ओढ़ सपनों की चादर को हम सो गए
दिल पराजित हुआ एक ही दांव में
हाय क्या हो रहा…..

 

इश्क इजहार करने को जब जब गए
लफ्ज खुद अपनी आवाज में दब गए
सिर्फ आँखों ने आँखों की भाषा पढ़ी
दिल ने फिर खूबसूरत कहानी गढ़ी
प्यास अब तक न बुझी किसी ठावं में
हाय क्या हो रहा…..

 

आओ नीले गगन के तले हम चले
छावं में भी पले धुप में भी ढले
वो बिछर क्या गए स्वप्न ही मर गए
मन के उपवन में पतझड़ की ऋतू दे गए
कोकिला सुर दबा काग की कांव में
हाय क्या हो रहा…..

रचना:-राजीव मतवाला
प्रकाशित पुस्तक:-स्वप्न के गाँव से


यह नश्वर संसार बावरे कौन यहाँ रहने वाला|
किससे कहें हृदय की पीड़ा कौन भला सुनने वाला|


हद से बढकर चाहा लेकिन मन मंदिर में बस न सके|
लिखने को तो बहुत लिखा पर अफसाना तुम पढ न सके|
हवा वही है, झील वही है, नीर वही है, चाँद वही,
प्रेम गंग की धार बहाकर गंगोत्री तुम बन न सके|
जीवन भर हम रहे परखते लेकिन परख नही पाए,
सबकी अलग-अलग हैं राहें कौन साथ चलने वाला||
किससे कहें हृदय की पीड़ा……..


रंग सँवरने की खातिर चित्रों का एक बसेरा हो |
चित्रों को आयाम मिले जब कैनवास का डेरा हो|
ज्यों जहाज का उड़ता पंछी फिर जहाज पर आए,

मन बैरागी तन अनुरागी क्या तेरा क्या मेरा हो|
बिना दृढ़ संकल्प जगत में किसे भला आधार मिला|
मुरझा गए सुमन उपवन के कौन भला चुनने वाला|
किससे कहें हृदय की पीड़ा……..


इस फानी दुनिया में कहीं अपना वजूद न खो जाए|
व्याकुल मन की डगमग नौका कौन किनारे ले जाए|
नदियाँ मुक्त हुआ करती हैं सागर में मिल जाने पर,
ठहरी हुई नदी को आखिर कौन सिंधु तक पहुंचाए|
यूं तो जीवन चक्र अहर्निश रहता है गतिमान मगर,
घाटों के पडाव ‘मतवाला’ कौन भला रुकने वाला||
किससे कहें हृदय की पीड़ा……..
रचना:- राजीव मतवाला
प्रकाशित:- ‘स्वप्न के गाँव में’ से

गुलबदन महजबीं ऐ नाजनीं……

गुलबदन महजबीं ऐ नाजनीं
आओ सो जाओ सीने पर……



नशीली लहरों में डूबा है मन
चाँदनी में नहाया हुआ तन
सिंधु में मन मुसाफिर है भटका,
बह रहा जोर से है पवन
चंद्र ग्रहण लगा जीने पर
आओ सो जाओ सीने पर……

ख्वाबों में बीती रीति हो तुम
मौन हो निमंत्रण देती हो तुम
प्यास उस पार भी प्यास इस पार भी,
आह भरकर क्यों जीती हो तुम
गौर कर इस नगीने पर,
आओ सो जाओ सीने पर……

आँख है ये नही है मधुशाला
तिरछी नजरों से है जादू डाला
रेल जीवन ही न छूट जाए,
बन के झूलों मेरे उर पे माला
है नशा आँख से पीने पर
आओ सो जाओ सीने पर……
रचनाकार -राजीव मतवाला
प्रकाशित काव्य पुस्तक स्वप्न के गाँव सेसंकलित


जब ज़मी पर चाँदनी.....

जब ज़मी पर चाँदनी उतरी थी पहली बार|
रात रानी की कली जब महकी पहली बार||



उससे पहले से चाहता हूँ तुझे|
दिल के मंदिर में पूजता हूँ तुझे|
बाद में सारी कायनात बनी|
बिगड़-बिगड़ के सारी बात बनी|
सूर्य की लाली जगत में चटकी पहली बार||
रात रानी की कली………..

तब कोई संसार में मंजनु न था|
तब कोई संसार में लैला न थी|
इस जहाँ में न कोई फ़रहाद था|
इस जहाँ में तब कोई शीरी न थी|
जब नियन्ता सृजन की सोची पहली बार|
रात रानी की कली………..

जब से चिड़ियों ने चहकना सीखा|
जब से चँदा ने चमकना सीखा|
जब से बिजली ने कड़कना सीखा|
जब से बादल ने बरसना सीखा|
जब हवाएँ इस धारा पे बहकी पहली बार|
रात रानी की कली………..
रचना:-राजीव मतवाला
प्रकाशित पुस्तक:-स्वप्न के गाँव से


सहरा में खे रहे हो नाव......


सहरा में खे रहे हो नाव बात-बात में।
बीता हुआ समय नहीं आएगा हाथ में।।
मंजिल को अगर छूने की ख्वाहिश बना लिए,
हो जाओगे सफल जो अनवरत चला किए।
परवाज नाप लेता है गगन की ऊँचाई,
क्योंकि वह सदा रखता है मेहनत से मिताई।
मेहनत सदा अपना निशान छोड़ जाती है,
कदम गलत उठे तो मुख मोड़ जाती है।
नयनों में सही गलत क्या है दीख जाता है,
सब जानते हुए भी नहीं सीख पाता है।
चढ़ती हुई जवानी चहकती जरूर है,
बस में न की गई तो बहकती जरूर है।
क्यों प्यार के अमृत की जगह अश्क है पीता,
वैभव के मकड़ जाल में दिन-रात है जीता।
सर मात्रभूमि पे क्यूँ झुकाया नहीं गया,
क्यों धूल के चंदन को लगाया नहीं गया।
सोंधीं महकती मिट्टी का मंजर नहीं देखा,
पावों में घाव हो गई खंजर नहीं देखा|
बहते हुए पसीने से मतलब किसे भला,
जो पूज्यनीय है वही जाता सदा छला।
पल-पल जो बदलता वो चलन देख रहा हूँ,
चौड़ी हुई छाती की गलन देख रहा हूँ।
जिसने किया पैदा उसी को डांटने लगा,
तितली के प्रेम में स्वयं को बाँटने लगा।
मेहनत से पढ़ाया लिखाया व्यर्थ हो गया,
समझा था जिसे सार्थक अनर्थ हो गया।
जिस छाँव में पले वो पेड़ काटने लगे,
अब हो गए सबल तो खूब छाँटने लगे।
शीतल मलय पवन की बात क्यों नहीं करता,
निरीह प्राणियों पे हाथ र्क्यों नहीं धरता।
चिड़ियों की मधुर बोल सुनाई नहीं देती,
कीमत क्यों घोसलों की दिखाई नहीं देती।
सो जाओगे जब ऊँघने लगेगा सवेरा,
नजर नहीं आएगा कहाँ खुद का बसेरा।
सच्चाई ने अब झूठ से है हाथ मिलाया,
जिससे विरोध था उसी को कण्ठ लगाया।
क्यों सब उलझ गए हैं आज अर्थ जाल में,
भटके हुए हैं सभी व्यर्थ के बवाल में।
दिन है मगर जी रहे अँधेरी रात में,
सहरा में खे रहे हो नाव बात-बात में।।
बीता हुआ समय नहीं आएगा हाथ में।।
रचना-राजीव मतवाला, ‘रुठ मत मेरी उम्र सेसंकलित